महानायक राष्ट्रपुरुष डा. बाबासाहेब आम्बेडकर

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हमारी इस पवित्र भूमि पर बहुत महापुरुषों ने जन्म लिया है और माँ भारती को गौरवान्वित कर राष्ट्र एवं समाज की सेवा की है। ऐसे ही नर रत्नों में से एक डा. भीमराव रामजी आम्बेडकर हैं, जिन्हें लोग प्यार से बाबासाहेब बुलाते थे। मालोजी सकपाल यह भीमराव आम्बेडकर जी के दादाजी एवं धर्मा पंडित यह नानाजी थे और दोनों ही सेना में काम करते थे। मध्यप्रदेश के महू (सेना की छावनी) नामक गांव में पिता रामजी एंव माता भीमाई के यहाँ बालक भीम का जन्म 14 अप्रैल 1891 में हुआ। कुछ ही दिनों बाद यह परिवार महाराष्ट्र के सातारा ज़िले में आया नौकरी के सिलसिले में। उनके पिताजी दुसरे गांव रहते थे और यह अलग गांव में रहते थे। तो एक दिन अपने बड़े भाई आनंद के साथ भीम पिताजी को मिलन रेल से निकले, पिताजी ने कहा था किसी को लेने भेजेंगे लेकिन वह व्यक्ती नहीं आया। दोनों भाई रेल्वे स्टेशन पर ही घंटो बैठे रहे, तो स्टेशन मास्टर ने उनसे बातचीत कर के पुछा कहाँ जाना है, जाने के लिए पैसे हैं? बच्चों के पास प्रवास के लिए पैसे हैं समझते ही उनके लिए बैलगाड़ी कि व्यवस्था उन्होंने कर दी। दोनों भाई पिता से मिलने की उत्सुकता से बैलगाड़ी में जल्द ही बैठ गए। उनसे पूछताछ करने से गाड़ी वाले को उनकी जाति के बारे में पता चला तो वह भड़क गया और दोनों भाईयों की उसने जमकर पिटाई की और धक्का देकर गाड़ी से उतार दिया। दुसरे एक गाड़ी वाले ने दुगुने पैसे लेकर उन्हें अपनी गाड़ी में बिठाया, रास्ते में भोजन के लिए रुके तो गाड़ी वाला उनसे दूर बैठा और उसने तालाब का पानी पिया लेकिन इन भाइयों को गटर का पानी पीना पड़ा। इस घटना से बालक भीमराव बहुत ही आहत हुए, पिताजी को यह सारा वृत्तान्त कथन किया तो पिताजी ने कहा, शिक्षा प्राप्त कर तुम विद्वान बनो सारी समस्याएं दूर हो जाएंगी। भीम 4-5 साल के रहे होंगे तब माता भीमाई का देहांत हुआ लेकिन पिता रामजी स्वंय कबीर पंथी थे, घर में मूलतः धार्मिक वातावरण था और बच्चों को राम-कृष्ण की कथाएँ सुनाई जाती थी। पिता को कष्ट न हो इसलिए भीम बचपन में सातारा रेल स्टेशन पर कुली का काम और खेती में मजदूरी किया करते, सातारा के सैनिकी पाठशाला से उनकी शिक्षा शुरु हुई। समाज में उन्हें बहुत ही कटु अनुभव एवं निरंतर अपमान बचपन से ही मिलते रहे किन्तु रेगिस्तान में जिस तरह झरना मिलता है, उसी तरह उनके जीवन में आम्बेडकर और पेंडसे नामक दो अध्यापक आए, पेंडसे गुरूजी को भीम से काफी लगाव था। एक दिन गुरुजी ने बच्चों को गणित सुलझाने के लिए कहा तो सबसे पिछे बैठे भीम ने कहा मुझे इस गणित का उत्तर आता है तो गुरुजी ने सामने बुलाकर उसे बोर्ड पर लिखने को कहा, तो जैसे ही भीम बोर्ड के पास आए तो सभी बच्चे चिल्लाने लगे क्योंकि उनके भोजन के डिब्बे बोर्ड के पीछे थे और भीम के बोर्ड के नजदीक जाने से उनका भोजन अपवित्र हो जाएगा। लेकिन पेंडसे गुरुजी ने अपने भोजन में से भीम को रोटी दी और आम्बेडकर गुरूजी ने तो अपना उपनाम ही भीम को दे दिया याने कि पाठशाला में भीमराव रामजी सकपाल के बजाय भीमराव रामजी आम्बेडकर लिखवाया!

 

पिता की नौकरी का कार्यकाल समाप्त होते ही, उनका परिवार मुंबई के डबक चाल में आया। वहाँ छोटे से कमरे में उनका सारा परिवार रहता। आगे कठिन परिश्रम से भीम मॅट्रिक कि परीक्षा उत्तीर्ण हुए तो दादासाहब केलूस्कर गुरुजी ने रामजी का काफी विरोध होते हुए भीम का सत्कार किया और स्व लिखित बुद्ध चरित्र भेंट किया। आज के समय मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण होना यह विशेष नहीं है किंतू जब उन्हें अछूत समझा जाता था तब वे एक तरह से समाज से बहिष्कृत थे, तब भीमराव मैट्रिक परीक्षा उत्तीर्ण हुए। आगे बी.ए. होने के बाद उच्च शिक्षा हेतु अमेरिका जाने के लिए उन्हें बडोदा नरेश महाराजा सयाजी गायकवाड़ जी ने अमेरिका से वापस आकर अपने दरबार में सेवा देने की शर्त पर उन्हें छात्रवृत्ति दी। अमेरिका के कोलंबिया विश्वविद्यालय से एम.ए. होने के बाद आगे की शिक्षा हेतु लंदन जाने की भीमराव की मंशा थी। परन्तु बडोदा से खत आया कि आपको बडोदा में नौकरी के लिए आना है, बडोदा में उन्हें सेना के सचिव पद पर नियुक्त किया गया। बडोदा में भीमराव को किसी भी हिंदू धर्मशाला या मुस्लिम धर्मशाला में अछूत होने के कारण प्रवेश नहीं मिला, इसलिए भीमराव अपना नाम बदलकर पारसी धर्मशाला में रहने लगे। भीमराव का पद कार्यालय में बडा़ था किंतु उनका चपरासी भी फाईल मांगने पर हाथ में देने के बजाए उनके टेबल पर दूर से फेंकता, उन्हें पीने का पानी तक नहीं दिया जाता। एक दिन पारसी धर्मशाला में कुछ लोग हाथ में लाठीयाँ लेकर आए और भीमराव से कहने लगे कि तुम अछूत ने हमारी धर्मशाला भ्रष्ट कर दी।

 

छात्र जीवन में भीम को संस्कृत सिखने की बडी इच्छा थी लेकिन संस्कृत अध्यापक ने उन्हें द्वितीय भाषा के रूप में संस्कृत पढाने से इनकार किया था। तब न चाहते हुए भी भीम को पर्शियन सिखने को कहा गया था लेकिन उन्होंने अपना संकल्प नहीं छोडा और एक पंडित से संस्कृत सीखी। जीवन भर भीमराव को ऐसे कटुतापूर्ण अनुभव आए लेकिन जिस तरह भगवान शिव ने विषपान किया, उसी तरह वह पीड़ा एवं अपमान के घूँट पिते रहे, किंतु समाज या राष्ट्र के प्रति उनका सदभाव कभी भी कम नहीं हुआ। वे कहते हम पहले भारतीय हैं और अंत में भारतीय हैं। महाराष्ट्र के रायगढ़ ज़िले के महाड स्थान पर डा.भीमराव आम्बेडकर की अगुवाई में 20 मार्च 1927 को सार्वजनिक चवदार तालाब का पानी पीने का अधिकार अछूतों को दिलाने के लिए किया गया एक प्रभावी सत्याग्रह था। इस सत्याग्रह में लगभग 15,000 लोग आए थे, सभी लोग अनुशासित तरिके से चवदार तालाब पहुँचे और भीमराव जी ने अपने हाथों से तालाब का पानी पिया, फिर हजारों सत्याग्रहियों ने उनका अनुकरण किया। उसके बाद सत्याग्रहियों पर महाड के सवर्णों ने पथराव किया और बुरी तरह उनपर टूट पड़े, आम्बेडकर जी के साथियों ने उनसे प्रतिकार करने को कहा किंतु उन्होंने मना किया और लोगों से कहा, ‘हम मानवता के अधिकारों के लिए आए हैं हिंसा करने नहीं, तो सभी सभा समाप्ती के बाद शांती से अपने अपने घर लौट जाए, हमारी लडा़ई हम कानुन से ही लडेंगे।’ वो चाहते तो हजारों लोगों के हाथों छोटा-सा महाड गावं तहस-नहस कर देते किंतु उन्होंने संयमता से भूमिका निभाई और इस घटना से अपना व्यक्तित्व सिद्ध किया, विशेष यह कि भीमराव के जीवन का यह पहला सत्याग्रह था। वर्तमान में छोटे - छोटे मुद्दों पर समाज में विद्वेष फैलाकर हिंसक आंदोलन करने वालों नेताओं को इस आंदोलन से सीख लेनी चाहिए। साथ ही इस आंदोलन की समाप्ती के बाद आम्बेडकर जी ने टिपनिस नामक ब्राह्मण परिवार के यहाँ निवास किया और उसके बाद उस टिपनिस ब्राह्मण परिवार को महाड गांव के लोगों ने बहिष्कृत कर दिया।

 

बाबासाहेब और साम्यवाद समझना हो तो महात्मा बुद्ध समझना ज़रूरी है क्योंकि बाबासाहेब ने साम्यवाद को यानी मार्क्स के लिए विकल्प ही बुद्ध को बताया है। भगवान बुद्ध के दर्शन में चार आर्य सत्य और अष्टांग मार्ग का महत्वपूर्ण स्थान है। चार आर्य सत्य- 1) दुःख : संसार में दुःख है, 2) समुदय : दुःख के कारण हैं, 3) निरोध : दुःख का निवारण है, 4) मार्ग : निवारण के लिए अष्टांगिक मार्ग है। और अष्टांग मार्ग यानी सम्यक दृष्टि, सम्यक संकल्प, सम्यक वाक, सम्यक कर्म, सम्यक आजिविका, सम्यक व्यायाम, सम्यक स्मृति, सम्यक समाधी यह है। मनुष्य प्राणी जीवन भर दुःखों का बोझ उठाता है, यह दुःख ही आर्यसत्य है। भगवान बुद्ध ने संसार के दुःख का विचार किया है और कार्ल मार्क्स ने शोषण का किया है। साथ ही बुद्ध ने दुःख निवारण हेतु अष्टांगिक मार्ग बताया है और मार्क्स ने शोषण से मुक्ति पाने के लिए रक्तपात के मार्ग से मजदूरों की तानाशाही बताई है। दुःख और शोषण का निवारण करने के लिए बुद्ध और मार्क्स ने जो मार्ग बताए हैं, वह परस्पर विरोधी हैं। इसलिए बाबासाहेब ने कहा है कि जब तक हमारे देश में बुद्ध का विचार है तब तक हमें मार्क्स की जरुरत नहीं है। 20 नवंबर 1956 को नेपाल के काठमांडू शहर में आयोजित ‘चौथी जागतिक बौद्ध परिषद्’ में गौतम बुद्ध अथवा कार्ल मार्क्स इस विषय पर बाबासाहब ने विस्तृत रूप से भाषण किया और बुद्ध एवं मार्क्स का तुलनात्मक विवेचन किया है।

 

सब्ब पापस्स अकरणं कुसलस्स उपसंपदा

सचित्त परियोदपनं एतं बुद्धानं सासन।

 

अर्थ - कौनसा भी पाप कर्म न करना, पुण्य संपादित करना,

स्व चित्त शुद्ध करना, यही बुद्ध की सीख है।

 

भीमराव लोकतंत्र के पुरस्कर्ता थे, वे मानते थे कि लोगों के सामाजिक एवं आर्थिक जीवन में विना रक्तपात के क्रान्तिकारी बदलाव लाने वाली शासन व्यवस्था को लोकतंत्र कहते हैं। मार्क्सवाद या साम्यवादी विचार अपूर्ण और सदोष है। साम्यवाद में केवल आर्थिक एवं भौतिक जीवन को ही महत्व दिया है और मनुष्य जीवन का कोई मूल्य नहीं है। साम्यवाद धर्म-विरोधी, स्वातंत्र्य विरोधी एवं लोकतंत्र विरोधी है और साम्यवादी देशों ने भी छोटे-छोटे देशों को साम्राज्यवादी भूमिका के तहत अपने नियंत्रण में रखा है। इसलिए हम लोगों को लोकतंत्र के साथ सामाजिक लोकतंत्र को भी प्रस्थापित करना चाहिए। स्वतंत्रता, समता, बंधुता और न्याययुक्त जीवन-पद्धति से ही सामाजिक लोकतंत्र आएगा, ऐसा आम्बेडकर जी का मानना था। रूस में 1917 में हुई कम्युनिस्ट क्रांति के बारे में उनका कहना था कि ‘रूस क्रांति में केवल समता लाने का प्रयास किया गया। लेकिन समता स्थापित करने में स्वतंत्रता और बंधुत्व की बलि चढ़ा देना उचित नहीं है। यदि स्वतंत्रता और बंधुत्व ही न रहे तो ऐसी समता निरर्थक है।’ मार्क्स का कहना था कि ‘राष्ट्र’ एक अस्थायी संस्था है और अपनी जरूरत खत्म होने पर यह अपना अस्तित्व खो देगा। डॉ. आंबेडकर ने मार्क्स के इस सिद्धांत को सिरे से खारिज करते हुए कहा, ‘साम्यवादियों को दो प्रश्नों के उत्तर देने होंगे -’राष्ट्र’ का विलय कब होगा? तथा इसके विलय के बाद इसका स्थान कौन लेगा?’ पहले प्रश्न में निश्चित अवधि कम्युनिस्ट बताते नहीं और दूसरे प्रश्न का भी संतोषजनक उत्तर नहीं देते।’ और हिंसा के मार्ग से तानाशाही स्थापित कर लोगों के अधिकारों का हनन करते हुए विरोधियों की हत्याएं करते हैं।

 

कलकत्ता शहर में 2 जनवरी 1945 को छात्रों को संबोधित करते समय आम्बेडकर जी ने कहा कि हमारे छात्रों ने अखिल भारतीय विद्यार्थी फेडरेशन (AISF) में कार्य नहीं करना चाहिए। (संदर्भ: डा.बाबासाहब आम्बेडकर लेखन और भाषण खंड 18, भाग 2, भाषण क्रमांक 216)

कम्युनिस्टों से सावधान रहना चाहिए।

(संदर्भ: डा.बाबासाहब आम्बेडकर लेखन और भाषण खंड 18, भाग 2, भाषण क्रमांक 230)

 

1952 के लोकसभा चुनाव में दक्षिण मुंबई से राखीव प्रवर्ग से बाबासाहेब प्रत्याशी रहे तो उनके खिलाफ कांग्रेस के भाऊराव काजरोलकर प्रत्याशी रहे और खुले प्रवर्ग से कम्युनिस्ट पार्टी के प्रत्याशी श्रीपाद डांगे रहे, बाबासाहेब आम्बेडकर चुनाव ना जीते इसलिए डांगे ने राखीव मत बाद किए। बाबासाहेब ने श्रीपाद डांगे के उपर लोकतंत्र के साथ धोखाधड़ का आरोप लगाकर उनके खिलाफ केस दर्ज किया।

(संदर्भ: डा.बाबासाहब आम्बेडकर प्रबुद्ध भारत की ओर, लेखिका - इलेनार झेलियट)

 

मूलतः आम्बेडक्राईट मूव्हमेंट का स्वरुप विद्रोही है किंतु बाबासाहेब ने अपने जीवन में जितने आंदोलन किए वो व्यवस्था के पुनर्निर्माण के लिए किए ना कि व्यवस्था ध्वस्त करने के लिए किए। इसलिए विद्रोह को प्रखर राष्ट्रवाद की आवश्यकता है, जिस तरह संत कबीर जी ने तत्कालीन व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह किया लेकिन साथ ही उनके भगवान राम के प्रति भक्ति में कोई भी चुंक नहीं हुई। उसी तरह व्यवस्था परिवर्तन की‌ लड़ाई में आम्बेडकर जी ने राष्ट्रहित को ही सर्वोतपरी माना है। लेकिन आज जो आम्बेडकर नाम का नकाब ओढ के मार्क्स, लेनिन, माओ के विचारों को अंजाम दे रहे हैं और ऐसे ढोंगियों से लडने के लिए बाबासाहेब के ही विचारों की आवश्यकता है। क्योंकि उन्होंने काठमांडू के भाषण में कहा है कि एशिया के लिए साम्यवाद खतरनाक है और भगवान बुद्ध का मार्ग ही चिरंतन है।

 

2 मार्च 1930 को आम्बेडकर जी ने महाराष्ट्र के नासिक के कालाराम मंदिर में प्रवेश करने के लिए सत्याग्रह किया तो नासिक के सवर्णों ने मंदिर ही बंद करवा दिया। इस सत्याग्रह के समय उनके कार्यकर्ताओं पर हमले हुए, किंतू यह सत्याग्रह अहिंसक मार्ग से 5 वर्ष तक चला फिर भी मंदिर के दरवाजे बंद ही रहे। 1935 में नासिक जिले के येवला स्थान पर उन्होंने घोषणा की कि 'हिंदू धर्म में जन्मा हूँ किंतु हिंदू धर्म में मरुंगा नहीं। यह घोषणा उस वक्त के आचार्य, धर्म पंडितों ने गंभीरता से नहीं ली। उस घोषणा के 21 साल बाद याने 14 अक्तुबर 1956 को महाराष्ट्र के नागपूर में बौद्ध धर्म गुरू महास्थविर भदंत चंद्रमणी जी के उपस्थिती में अपने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध मत की दीक्षा ली। उन्हें कई मत/पंथ से निमंत्रण आए कि हमारे पंथ को स्वीकार करें, किसी ने संपत्ति का लालच दिया तो किसी ने सत्ता का किंतु आम्बेडकर जी ने प्राचीन भारतीय धार्मिक मान्यताओं को पुनर्जिवित करते हुए 'अपने धर्मांतरण का राष्ट्रांतरण नहीं होने दिया।'

 

- नागसेन पुंडगे, पुणे (महाराष्ट्र प्रदेश)